सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दोहा विशेषांक

मित्रो
शोध दिशा का दोहा विशेषांक मार्च २०११ में प्रकाशित हो रहा है। इस में देश के लगभग 100 दोहाकार सम्मिलित होंगे।
अपनी प्रति के लिये संपर्क कीजिये:
डा। गिरिराज शरण अग्रवाल
सम्पादक
हिन्दी साहित्य निकेतन
16 साहित्य विहार
बिजनौर उ।प्र. 246701

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

सोमा वीरा की कहानी लांड्रोमैट


जन्म नवंबर 1932, लखनउ (उ.प्र.) भारत में; शिक्षा : बी.ए. (पत्रकारिता), एम.ए. इकोनॉमिक्स एंड इंटरनेशनल रिलेशंस, यूनिवर्सिटी आफ़ कोलोराडो, बोलडर, यू.एस.ए.। पी-एच.डी., इंटरनेशनल रिलेशंस एंड इन इंटरनेशनल इकोनॉमिक डेवलपमेंट, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी अमरीका; पचास के दशक के अंतिम भाग में अमरीका आईं। सन् 2004 में उनका देहावसान हो गया। वे एक सशक्त हिंदी लेखिका थीं, साथ ही साथ अँग्रेज़ी में 'साइंस फिक्शन' की सशक्त हस्ताक्षर थीं। दस वर्ष की छोटी उम्र से ही उनके लेख प्रकाशित होने लगे थे। 'नवभारत टाइम्स' बंबई में बच्चों के पृष्ठ तैयार करने में उनका सक्रिय योगदान रहा। सन् 1962 में उनकी पुस्तक 'धरती की बेटी' प्रकाशित हुई। सोमा वीरा ने हिंदी में सौ से भी अधिक कहानियाँ लिखीं। पुस्तकें : धरती की बेटी तथा दो आँखों वाले चेहरे, परछाइयों के प्रश्न (कहानी-संग्रह), तीनी (उपन्यास), साथी हाथ बढ़ाना (एकांकी-संग्रह), लिटिल बिट इंडिया लिटिल बिट यू.एस.ए. अँग्रेज़ी में प्रकाशित व चर्चित उनका काव्य-संग्रह है; पुरस्कार : उन्होंने अमरीका की दस श्रेष्ठ महिलाओं का पुरस्कार यूनिवर्सिटी स्तर पर प्राप्त किया व 1990 में 'हू इज़ हू वर्ल्डवाइड' में उन्हें चुना गया।

हाथ में मैले वस्त्रों का थैला लिए, मार्गरेट लांड्रोमैट में प्रवेश कर रही है। मशीन में वस्त्र डालकर वह यहाँ आएगी। हम दोनों यहाँ बैठकर कॉफ़ी पिएँगे।
यह छोटा-सा ड्रग-स्टोर है। एक ओर दवाएँ तथा साबुन-मंजन आदि बिकते हैं। दूसरी ओर, खाने-पीने के लिए एक गोल काउंटर है। वहीं एक किनारे, छोटी-छोटी चार-पाँच लंबाकार मेज़ें भी पड़ी हैं। अधिकतर लोग काउंटर के पास लगे ऊँचे स्टूल पर बैठकर ही, कुछ खा-पीकर, झटपट अपनी राह लेते हैं; किंतु मुझे मार्गरेट की प्रतीक्षा करनी है, अत: मैं खाली मेज़ों पर निगाहें डालता, यहाँ एक कोने में बैठा हूँ।
दवाओं की गंध से भरे इस ड्रग-स्टोर में कॉफ़ी पीना मुझे अच्छा नहीं लगता, किंतु मार्गरेट को यह लांड्रोमैट बहुत पसंद है। समझ में नहीं आता क्यों? क्योंकि कोई ख़ास बात नहीं है इस लांड्रोमैट में। अमरीका के छोटे-बड़े सभी नगरों में, ऐसे अनेक लांड्रोमैट हैं। यहाँ इंसान बेकार खड़ा रहता है, मशीनें काम करती हैं।
एक ओर वस्त्र धोने की मशीनें हैं, दूसरी ओर सुखाने की। जेब से एक सिक्का निकालकर डालते ही मशीन चलने लगती है ... घुर्र, घुर्र ...
पहली-पहली बार, जब विमल भैया के साथ यहाँ आया था, वह कुछ मुस्कुराकर बोले, 'निर्मल, एक बार की चाय चाहे गोल कर जाना, किंतु जेब में, इस मशीन के भोजन के लिए पच्चीस सैंट अवश्य रखना। क़मीज़ें यदि सब मैली हो गई हों और जेब में पैसा न हो, तो इस मशीन से यह कहने से काम नहीं चलेगा, 'रामू, यह कमीज़ शाम तक चाहिए हमें, और देखो, धुलाई अगले हफ्ते मिलेगी।'
हम दोनों की हँसी वाशिंग-मशीन के शोर के ऊपर छा गई थी और आसपास की मशीनों में अपने वस्त्र डालने वाले कोट-पैंटधारी, चौंक-चौंक कर हमारी ओर देखने लगे थे।
पर वह डेढ़ वर्ष पुरानी बात है।
तब मुझे शिकागो आए हफ्ता-भर भी नहीं हुआ था। उस दिन सवेरे ही हम लोग 'कोऑपरेटिव हाउसिंग' में एक फ़्लैट देखकर आए थे। फ्लैट आरामदेह था, पर क़ीमत भी काफ़ी थी। सोचते-से स्वर में भैया बोले थे, 'देख निर्मल, सात सौ डॉलर 'डाउन पेमेंट' देने पर, हमें हर महीने केवल दो सौ डालर देने पड़ेंगे और जैसे ही पूरी क़ीमत चुकता हो जाएगी, यह फ्लैट हमारा हो जाएगा। नगर में ऐसा अच्छा फ्लैट किराए पर लेंगे, तो एक सौ पचहत्तर से कम में नहीं पड़ेगा।'
मैं चुप-चुप सुनता रहा था।
भैया अपनी ही धुन में कहते जा रहे थे, 'तेरी पढ़ाई डेढ़ साल में पूरी हो जाएगी, ज़्यादा-से-ज़्यादा दो साल में। तुझे नौकरी मिल जाएगी, तो कमल को यहाँ बुला लेंगे। तीनों भाई मिलकर रहेंगे। साथ रहने से आराम भी रहेगा। खर्च में भी बचत होगी। कौन जाने-शायद और कोई यहाँ आना चाहे अम्माँ, या बाबू जी, या बरेली वाले चाचा जी। तब होटलों में कमरा खोजते नहीं घूमना पड़ेगा।'
दो दिन पहले ही मैं आया था। चलते समय माँ ने कहा था, 'देख बेटा, वहाँ ज़्यादा अक्लमंदी न छाँटना। जैसे बड़े भैया कहें वैसे ही करना, परदेस में बड़ों की बात मानकर चलना ही ठीक है।'
माँ की वही बात मेरे कानों में गूँज रही थी। अत: कुछ न कहकर, मैंने चुपके से स्वीकृति में सिर हिला दिया था।
अगले ही दिन, हम लोग अपने नए फ्लैट में आ गए थे। वह फ्लैट आज भी उतना ही आरामदेह और सुविधाजनक है; किंतु आज उसका मालिक कोई और है और मेरे हाथों में यह चिट्ठी है-छोटे भाई कमल की। इसके ख़ूबसूरत, बारीक अक्षरों के बीच मानो उसका उत्सुक चेहरा चमक रहा है-भैया, बोलो, तुम मुझे कब अपने पास बुला रहे हो?
मार्गरेट लांड्रोमैट के बाहर निकल आई है। अब वह चौराहे पर खड़ी हरी बत्ती की प्रतीक्षा कर रही है। शीघ्र ही लाल बत्ती हरी में बदल जाएगी। वह सड़क पार कर, सामने के इस दरवाज़े में क़दम रखेगी और अपनी ऊँची एडि़याँ खटकाते, निकट आकर मेरे पास पड़ी इस कुर्सी पर बैठ जाएगी।
आधे घंटे तक वस्त्र मशीन में धुलते रहेंगे। आधे घंटे मार्गरेट को मेरे पास बैठने और बातें करने की फुरसत रहेगी। बस, इससे अधिक नहीं, मशीन से कपड़े निकलते ही उसे अपने घर लौटना होगा, क्योंकि 'ओवेन' में वह मुर्ग़ा पकने के लिए रख आई है और ओवेन में लगी घड़ी में पकने का समय 'सैट' कर चुकी है। यदि वह समय से नहीं पहुँचेगी, तो मुर्ग़ा ओवेन में ही जल जाएगा और खिड़की-बंद उन दो कमरों में गंध भर जाएगी।
सवेरे से शाम तक उसका जीवन, इन्हीं घरेलू यंत्रों में लगी, ऑटोमैटिक सुइयों के सहारे चलता है। जब भी उसे देखता हूँ, मुझे लगता है- मशीनों के साथ ज़िंदा रहने से, इंसान को भी मशीन बनना पड़ता है।
और आज की तरह, कभी यों अकेले दो क्षण चुपचाप बैठने का अवकाश मिल पाता है, तो मन में दबी वह बात घबराई-सी उभर आती है-इस मशीन-सी दुनिया में रहकर, क्या मैं भी मशीन बनता जा रहा हूँ? क्या मैं भी इंसानियत के वे प्यारे-प्यारे रेशे खोता जा रहा हूँ?
मन छटपटा उठता है और बोझिल-सी वह आवाज़, अवचेतन के गीले गारे पर, कसे तार का-सा निशान छोड़ जाती है-तेरी एक ज़िंदगी पीछे है, एक कहीं आगे है। उन दोनों के बीच, यह जो आज की ज़िंदगी है, इसका सूत्र कहाँ है और परिणति कहाँ है?
दरवाज़ा खुलता है और हवा के एक हलके झोंके के साथ मार्गरेट अंदर क़दम रखती है। आज उसने नीचे गले का ढीला जम्पर पहना है। उसी रंग की, कसी हुई 'शॉर्टपैंट' है, जो घुटनों तक नहीं पहुँचती। पैरों में भूरे रंग के 'फ्लैट' जूते हैं और हाथ में काग़ज़ का खाली थैला है।
थैला मेज़ के एक पाए के सहारे टिका, वह मेरी ओर देखकर मुसकराती है, 'हलो, निर्मल।'
'हैलो, मार्ज! हाउ आर यू?'
'फ़ाइन, थैंक यू!'
बैरा आकर कॉफ़ी का ऑर्डर ले जाता है। मार्गरेट चुप बैठी खिड़की के बाहर ताकती रहती है।
आजकल जब वह इस प्रकार चुप बैठती है, तो मेरा मन डर जाता है, क्योंकि मैं जानता हूँ पिछले कुछ दिनों से उसकी इस चुप्पी में एक प्रश्न उभर रहा है। दिन-ब-दिन वह प्रश्न अधिक ज़ोर पकड़ता जा रहा है, किंतु मैं उससे घबराता हूँ। मैं उस प्रश्न को सुनना नहीं चाहता। मुझे डर लगता है। मेरा मन अभी उसका उत्तर देने के लिए तैयार नहीं, अभी वह सोचने के लिए कुछ और समय चाहता है।
काउंटर पर से उठकर, कोई हमारी ओर आता है, 'हैलो, मार्जी।'
मार्गरेट चौंककर सिर घुमाती है। उसकी नीली आँखों में चमकदार खुशी की चादरें-सी बिछ जाती हैं, 'ओह, हैलो, पीटर!'
अचानक मार्गरेट को ध्यान आता है कि वह मेरे साथ है।
मुड़कर वह मेरी ओर देखती है, 'निर्मल, तुम पहले कभी पीटर से मिले हो? हम दोनों एक ही दफ्तर में काम करते हैं। पीटर, यह मेरे मित्र निर्मलकुमार हैं।'
कुर्सी से ज़रा-सा उठा, मैं पीटर से हाथ मिलाता हूँ, 'बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर।'
'मुझे भी', वह मार्गरेट की ओर देखता है, 'मार्जी, पास के स्टोर से मुझे कुछ खरीदना है। क्या तुम मेरी मदद कर सकोगी?'
'क्यों नहीं, ज़रूर। निर्मल, क्या तुम दो मिनट के लिए मुझे अवकाश दोगे?' कहते-कहते वह उठ खड़ी होती है।
जा तो वह रही है। जाएगी ही। औपचारिकता निभाने के लिए मैं भी कह देता हूँ, 'ज़रूर-ज़रूर।'
मुसकाकर वह चल देती है, पीटर आगे बढ़ दरवाज़ा खोलता है। मुड़कर, मार्गरेट मेरी ओर देख मुस्कुराती है, और सखा-भाव से हाथ ज़रा हिला, बाहर निकल जाती है।
मैं कुर्सी से पीठ टिकाकर बैठ जाता हूँ।
लगता है जैसे काउंटर पर बैठे व्यक्तियों की आवाज़ें सैकड़ों मील दूर से सुनाई दे रही हैं ... जैसे ... मेरी अवचेतना पर कसा तार, ज़रा-सा सरक कर, एक ओर गहरी लकीर बना गया है...
आँखें खोलीं तो देखा सामने कॉफ़ी है। बैरा आया होगा। प्याले रखकर, लौट गया होगा।
सहसा मन न जाने कितना कड़वा हो उठा।
जेब से बॉल पॉइंट पैन निकाल, नैपकिन के एक कोने पर लिखा, 'मार्ज, अचानक एक ज़रूरी काम याद आ गया, इसलिए जा रहा हूँ। संध्या को घर पर ही रहूँगा, अवकाश हो तो फ़ोन कर लेना।'
नैपकिन उसके प्याले के नीचे दबा दिया। बैरे को बुलाकर पैसे चुका दिए और समझा दिया कि मार्गरेट के लौटने तक वह प्याले न उठाए। उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया, तो मैं बाहर निकल, बस-स्टैंट पर खड़ा हो गया।
मन पर पड़ी लकीर पुन: कसक उठी- तेरी एक ज़िंदगी पीछे है, एक कहीं आगे है। उन दोनों के बीच, यह जो आज का अंतराल है, इसका सूत्र कहाँ है और सीमा कहाँ है?
निगाहें पीछे की ओर लौटती हैं, तो सूत्र खोजती ही रह जाती हैं-कब हुई थी इस नई ज़िंदगी की शुरुआत?
-जब भैया ने व्यापार के सिलसिले में शिकागो आने का निश्चय किया था, तब?
-या तब जबकि मैं रुड़की इंजीनियरिंग कालेज की प्रवेश-परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सका था?
-या तब जबकि भैया की पमेला मार्टिन से पहली-पहली बार मुलाक़ात हुई थी?
-या तब, जबकि आँसुओं से भीगा पत्र आया था माँ का, और पढ़कर भैया बोले थे, 'उफ् हमारे घर की ये बड़ी-बूढि़याँ!'
-या तब, जबकि ...
निगाहें लौटती हैं पीछे की ओर, तो भटकती ही रह जाती हैं।
अभी पिछले हफ्ते की ही तो बात है। भैया को खोजते उनके अपार्टमेंट तक पहुँच गया। वह मिले नहीं, केवल भाभी थीं।
मुझे देखते ही बोलीं, 'निर्मल! खूब आए तुम, मेरी वाशिंग-मशीन खराब हो गई है। ये कपड़े लांड्रोमैट तक ले जाने हैं। ज़रा ले तो जाओ।'
मैं मुरादाबाद में होता और भाभी, सरला, कुंती या मधूलिका होतीं, तो मैं झटपट कपड़ों की गठरी उठा, लपककर चल दिया होता और चलते-चलते कहा होता, 'देखो भाभी, मेरे लौटने तक प्याज़ के पकौड़े तैयार रखना, यदि लौटते ही सामने प्लेट न मिली तो ...'
भाभी हँस पड़ी होतीं और उस हँसी की डोर से, गैस के गुब्बारे-सा बँधा, मैं फूला-फूला क़दम बढ़ाता जाता।
किंतु यह मुरादाबाद नहीं, शिकागो है और भाभी, कुंती, सरला या मधूलिका नहीं, पमेला हैं। प्याज़ के पकौड़े तो दूर की बात है, इनके हाथ से एक प्याला चाय भी बड़े भाग्य से मिलती है और जब मिलती है तब सभ्यता के अनुसार, चेहरे पर एक लंबी-चौड़ी मुस्कान लाकर कहना होता है, 'थैंक यू!'
अत: झटपट कहा, 'आई एम सॉरी, पमेला! आज तो मुझे ज़रा भी छुट्टी नहीं। भैया कहाँ हैं? उनसे कुछ पूछना है।'
लगा कि पमेला बुरा मान गई है।
लगा कि उसकी आँखें साफ़ कह रही हैं-बड़ी हिंदुस्तान की कहानियाँ सुनाया करते हो कैसे मौसी, चाची और रिश्ते की भाभी की फ़रमाइशें पूरी करने के लिए, भरी धूप में भी साइकिल लेकर बाज़ार दौड़ा करते थे। मैं भूले-भटके कभी कोई ज़रूरी काम भी कह देती हूँ, तो झट से कह देते हो-आई एम सॉरी। यही तुम्हारी भारतीय सभ्यता है?
किंतु उस अनकहे अभियोग का मुद्रा पर ज़रा भी असर नहीं हुआ। अपनी भारतीय सभ्यता के अनुसार, एक दिन भूल से उन्हें 'भाभी' कहकर पुकार बैठा था। वह तुरंत बोली थीं, 'तुम हिंदुस्तानियों के नाम ही मुश्किल होते हैं। मेरा तो बड़ा आसान नाम है, पमेला। कहा, पमेला। याद रहेगा न अब?'
मैंने स्वीकृति में ज़ोर से सिर हिला दिया था-हाँ, खूब याद रहेगा।
मुझे चुप देख, वह बोलीं, 'इन दो कमरों में रहना मुझे ज़रा भी पसंद नहीं। तुम्हारे भैया कोई आरामदेह फ्लैट खोजने गए हैं। न जाने कब तक लौटेंगे।'
सुनकर याद आ गया-जिस दिन भैया ने पमेला के हाथ में सगाई की अँगूठी पहनाई थी, उसी रात मुझसे कहा था, 'निर्मल, यह फ्लैट तो अब हमें छोड़ना पड़ेगा।'
मैं चौंक गया था, 'क्यों, भैया?'
सुनकर भैया चुप रहे थे। फिर हारे-थके से, धीरे से बोले थे, 'मैंने तुम्हें बताया है। अगले महीने की नौ तारीख को मैं पमेला से विवाह कर रहा हूँ।'
मैं लज्जित हो उठा था, 'क्यों' शब्द का प्रयोग कर, मुझे भैया को दुखी नहीं करना चाहिए था। मेरी बुद्धि कहाँ चली गई थी, जो मैं पहले ही यह नहीं सोच सका कि एक अमरीकी लड़की, पति के भाई को अपने घर में बसाना पसंद नहीं करेगी।
मुझे चुप देख, भैया बोले थे, 'निर्मल ... आई एम सॉरी।'
मैंने अपने मन की सारी शक्ति बटोर, मुख पर हर्ष और उत्साह लाकर कहा था, 'वाह! इसमें अफ़सोस प्रकट करने की क्या बात है, भैया? मैं तो केवल यह सोच रहा था कि इस 'फ्लैट' के लिए हमने जो कांट्रैक्ट साइन किया था, उसका क्या होगा?'
बहुत वाद-विवाद के बाद, हाउसिंग-कोऑपरेटिव को पाँच सौ डॉलर जुर्माना देकर, हम उस फ्लैट के मालिक बनने से छुटकारा पा सके थे।
फ़्लैट खाली करते समय, एक बार मेरे मन में बात उठी थी-कमल के यहाँ आ जाने पर किराये आदि में बचत होगी। इस विचार से यह फ्लैट खरीदा था। कमल यहाँ आ भी नहीं पाया और ...
और आज कमल की एक और चिट्ठी मेरी जेब में पड़ी है।
मार्गरेट मुझे बड़ी अच्छी लगती है। मुझे लगता है-उससे विवाह कर मैं सुखी रहूँगा। किंतु कमल और माँ और बाबूजी!
कंधे पर किसी का हाथ पड़ा। मैंने चौंककर देखा, मार्गरेट थी।
'यहाँ क्यों खड़े हो? नाराज़ हो गए?'
'नहीं, नाराज़ी की तो कोई बात नहीं, बस की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।'
'मैं तो सिर्फ़ पाँच मिनट के लिए गई थी। पीटर को अपनी गर्लफ़्रेंड के लिए एक उपहार ख़रीदना था।' वह सफ़ाई देते हुए बोली।
मैंने अपना हाथ उसकी कमर में डाल दिया, 'मैं क्या भला तुमसे नाराज़ हो सकता हूँ, डार्लिंग! एक ज़रूरी काम याद आ गया, इसलिए जा रहा हूँ।'
'ऐसा ज़रूरी काम है। दस मिनट भी नहीं रुक सकते? और मुझसे कहा करते हो कि मैं घड़ी की सुइयों के साथ चलती हूँ?'
हँसी आ गई। उसके साथ वापस कॉफ़ी मेज़ पर लौट आया।
कॉफ़ी के घूँट भरते, दो-चार बातों के बाद, मार्गरेट ऐसे बोली जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो, 'निर्मल, जब कभी कोई परिचित मिलता है, मेरी ख़ाली उँगली देखकर पूछता है-इसमें अँगूठी कब पड़ेगी?'
मैंने प्याला धीरे से प्लेट पर रख दिया।
जिस प्रश्न की मैं प्रतीक्षा-सी कर रहा था, मन-ही-मन जिससे डर रहा था, वह आखिर सामने आ ही गया।
मेरे सामने जो सुंदर लड़की बैठी है, यह विवाह के लिए तैयार है। जिस दिन मैं इसकी उँगली में अँगूठी पहनाऊँगा, यह मुझसे विवाह करना स्वीकार कर लेगी। विवाह हो जाने पर, अपने उस 'मैरिज कांटै्रक्ट' को बड़े यत्न से, कोहनूर जड़े किसी दस्तावेज़ की तरह सँभालकर रखेगी।
अपना 'मैरिज कांट्रैक्ट' सयत्न सूटकेस में रखते हुए एक दिन पमेला ने कहा था, 'हम लोगों के लिए यह कांट्रैक्ट बड़ा क़ीमती है निर्मल! हमारे समाज में कुँवारे रहने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा माना जाता है कि किसी लड़की का विवाह होकर तलाक़ हो जाए। यदि विवाह सफल न हो तो हम लोगों को तलाक़ की पूरी सुविधाएँ हैं।'
पमेला की उँगली में उसके विवाह की अँगूठी थी। वह किसी सिक्के की तरह चमक रही थी। उस सिक्के की तरह, जिसे किसी मशीन में डालते ही, उसका मशीन से कांट्रैक्ट हो जाता है। जब तक सिक्का अपनी जगह रहता है, मशीन चलती रहती है। जब सिक्का फिसलने लगता है, मशीन बंद हो जाती है।
मैंने दृष्टि उठा, उसकी ओर देखा। कहा, 'मार्जी, तुम्हें मालूम है मेरे ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं (घर पर तीन अविवाहित बहनें हैं), एक छोटा भाई है, जिसकी सारी पढ़ाई बाक़ी है। मैं इस काबिल नहीं कि तुमसे विवाह कर सकूँ ... आई एम सॉरी, मार्ज!'
उसकी निगाहें झुक गईं।
दो पल बाद ही, उसने सिर उठाकर मेरी ओर देखा। कहा, 'निर्मल, आई एम ऑलसो सॉरी।'
धीरे, स्वस्थ भाव से उसने कॉफ़ी का प्याला खत्म किया, नेपकिन मेज़ पर रखा और उठ खड़ी हुई। अपना हाथ बढ़ाकर बोली, 'बाई, बाई।'
मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, 'मार्गरेट, क्या मैं आशा करूँ कि हमारी मैत्री में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा और हम कभी-कभी मिलते रहेंगे?'
'क्यों नहीं, निर्मल! लेकिन तुम जानते हो, जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, उमर बढ़ती जाती है। आई एम नॉट गैटिंग यंगर, आई कैन नॉट एफोर्ड टु वेस्ट माई टाइम।'
'मैं समझता हूँ, मार्जी।'
'बाई, बाई।'
'बाई।'
वह चल दी। मैं देखता रहा, दरवाज़े के निकट वह रुकी नहीं। एक बार मुड़कर देखा नहीं। हाथ हिलाकर विदा नहीं ली।
खिड़की से मैं उसे सड़क पार करते देखता रहा-अभी वह लांड्रोमैट में घुसेगी। कपड़े निकालने को मशीन का ढक्कन उठाएगी, तो मशीन भी कुछ नहीं कहेगी। नि:शब्द रहेगी।
फिर कोई आएगा, और 'स्लॉट' में एक सिक्का डाल देगा और मशीन फिर से चलने लगेगी- घुर्र, घुर्र ...
मशीन की इन बंद आवाज़ों के बीच, ज़िंदगी के अंतराल का अंतिम छोर क्या मैंने पा लिया है?
या फिर कोई 'मार्गरेट' आएगी? और उसकी आँखों में बंद, घुटे प्रश्नों की चौंध ऐसी तीखी होगी कि मैं कमल को भूल जाऊँगा ... अपनी बहनों को भूल जाऊँगा...माता-पिता और संबंधियों को भूल जाऊँगा ।
नहीं-नहीं।
मैं ऐसा नहीं होने दूँगा ... नहीं होने दूँगा ... होने दूँगा ... नहीं ... उफ़।
मैं देख रहा हूँ-मेरी आँखें देख रही हैं। पीटर लांड्रोमैट में प्रवेश कर रहा है। उसकी आँखों में ज़रूरत है। जेब में सिक्के हैं और मशीन खाली है और मेरे मन में ईर्ष्या का लेश भी नहीं है।
किंतु मेरा मस्तिष्क क्यों बेचैन है? अवचेतन में घुटी वह आवाज़ क्यों फिर से कसक रही है? तेरी एक ज़िंदगी पीछे है, एक कहीं आगे है और उन दोनों के बीच यह जो आज की ज़िंदगी है ...।

शोध दिशा का प्रवासी कथा विशेषांक


अपने देश से दूर हिंदी की सेवा में लगे बहुत से कवि और कथाकार अपनी लेखनी का प्रकाश भारत के कोने-कोने में नहीं फैला पाते हैं। अतः इनके साहित्य को एकत्र कर के समय-समय पर विभिन्न पत्रिकाएं प्रवासी विशेषांक निकालती रहती हैं। इस दिशा में पहला कदम उठाया था "वर्तमान साहित्य" ने, प्रवासी महाविशेषांक निकाल कर। 2006 में प्रकाशित इस अंक के अतिथि सम्पादक थे डॉ. असगर वजाहत। अपने आप में यह विशेषांक इसलिए भी विशिष्ट था कि इसमें कई देशों के रचनाकारों के विभिन्न विधाओं में किए गए लेखन को न मात्र पहली बार एक मंच पर प्रस्तुत किया गया था वरन उस लेखन की समीक्षा भी उपलब्ध थी। इसके बाद "रचना समय" पत्रिका का प्रवासी कथा विशेषांक तेजेंद्र शर्मा के अतिथि सम्पादकत्व में आया। इस दिशा में नवीनतम प्रस्तुति है साहित्य अकादमी के लिए हिमांशु जोशी के द्वारा 2009 में निकाला गया प्रवासी कहानियों का संकलन।

अमेरिका के साहित्य को समेटने का काम पिछले कुछ वर्षों से अंजना संधीर निरंतर करती रही हैं और उनकी शोधपरक प्रस्तुतियां "प्रवासी आवाज", "प्रवासिनी के बोल", "सात समन्दर पार से" आदि के रूप में सामने आती रही हैं ।

इसी दिशा में एक नया कदम है "शोध दिशा" पत्रिका का प्रवासी कथा विशेषांक। यह पहला ऐसा विशेषांक है जो अमेरिका के प्रतिनिधि हिंदी कथाकारों पर केन्द्रित है। इस में 21 कथाकारों की प्रतिनिधि कहानियों को संग्रहीत किया गया है जो दो अंको में कालक्रम से पाठकों के समक्ष आएगा।
पहला भाग जो अभी आया है जुलाई-सितम्बर 2010 अंक, उसमें 10 कहानियों का संग्रह है और अन्य 11 कहानियां अगले अंक में आएंगी। अमरीका की पहली हिंदी कथाकार सोमा वीरा की कहानी से लेकर, उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, कमला दत्त, रमेशचन्द्र धुस्सा, उमेश अग्निहोत्री, उषा कोल्हटकर, अनिल प्रभा कुमार, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, एवं सुधा धींगरा की कहानियों से सजा यह अंक पाठकों को लुभाएगा।

आकर्षक मुख पृष्ठ, संपादकों के संतुलित वक्तव्य और कहानियों का सुरुचिपूर्ण चुनाव इस पत्रिका को आद्योपांत पठनीय बनाता है जिसके लिए शोध दिशा के सम्पादक गिरिराज शरण अग्रवाल, प्रबंध संपादिका मीना अग्रवाल और इस अंक की अतिथि सम्पादिका इला प्रसाद बधाई की पात्र हैं। इस पत्रिका में भाषा की गलतियां नगण्य हैं। गिरिराज शरण जी का यह प्रयास बहुत सराहनीय और स्वागत योग्य है। शोध दिशा के इस अंक में जिन कहानियों को चुना गया है उन में से कुछ तो यहां (अमेरिका ) के परिवेश को दर्शाती हैं तो कुछ में देश की महक मिलती है। भाषा और पटकथा की दृष्टि से हर कहानी बहुत मजबूत है। इस खजाने को एकत्र करने में इला जी ने जो मेहनत की है वो काबिले तारीफ है। मीना अग्रवाल जी का संस्मरण "यादों के झरोखे में काका " अति पठनीय है।
इस पत्रिका के माध्यम से अमेरिका की हिंदी कहानी का जो स्वरूप सामने आया है वो आलोचकों को पुनर्विचार पर मजबूर करेगा।
रचना श्रीवास्तव